नहीं रहीं महाराष्ट्र की मदर टेरेसा: भीख मांग जिन बेघर बच्चों को पाला उन्हें फिर से अनाथ कर गईं!

देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित सिंधुताई सपकाल अब हमारे बीच में नहीं हैं। डॉ. सिंधुताई सपकाल का 73 साल की उम्र में निधन हो गया। आपको बता दे, सिंधुताई ने अपना पूरा जीवन अनाथ बच्चों की जिंदगी संवारने में लगा दिया था। सिंधुताई के लिए कहा जाता है कि इनके 1500 बच्चे, 150 से ज्यादा बहुएं और 300 से ज्यादा दामाद हैं।
73 साल की सिंधुताई को लोग प्यार से 'अनाथों की मां' कहते थे। 4 जनवरी को वो अपने हजारों बच्चों को अकेला छोड़ इस दुनिया को अलविदा कह गईं। मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता का निधन दिल का दौरा पड़ने के कारण हुआ। कल पुणे में पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।
ऐसा था सिंधुताई का जीवन
महाराष्ट्र के वर्धा में एक गरीब परिवार में जन्मी सिंधुताई को बेटी होने के कारण लंबे समय तक भेदभाव झेलना पड़ा था। जन्म के बाद सिंधुताई का नाम चिंदी रखा गया था, चिंदी मतलब- किसी कपड़े का कुतरा हुआ टुकड़ा, जिसका कोई मोल ना हो। परिवार की ग़रीबी चरम पर थी, इसीलिए ना अच्छी परवरिश मिली और ना ही शिक्षा।
सिंधुताई की मां उनके स्कूल जाने के विरोध में थीं, हालांकि उनके पिता चाहते थे कि वह पढ़ें। लिहाजा जब वह 12 साल की थीं तब उनकी शादी करा दी गई थी, बह भी उनसे 20 साल बढे एक पुरुष से।
सिंधुताई का जीवन संघर्ष इस तरह देखा जा सकता है कि बचपन में बचपन नहीं मिला और विवाहित होने पर पति का प्यार। सिंधुताई को जो पति मिला वो गालियां देने और मारने वाला मिला। जब वह 9 महीने की गर्भवती थीं तो उसने उन्हें छोड़ दिया। हालात इतने बुरे हो गए कि उन्हें गौशाला में अपनी बच्ची को जन्म देना पड़ा। वो बताती हैं कि उन्होंने अपने हाथ से अपनी नाल काटी।
चल पड़ी थीं आत्महत्या करने!
बच्चे को जन्म देने के बाद, सिंधुताई रेलवे स्टेशन जा पहुंची. यहीं पर वो भीख मांग कर अपना और अपनी बच्ची का पेट पालने लगी। अपना पेट भरने के लिए ट्रेन में भीख भी मांगी। कभी-कभी श्मशान घाट में चिता की रोटी भी खाई।

कई दिनों तक ऐसा चलता रहा। इन सब बातों ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया, एक पल ऐसा भी आया जब चिंदी का धैर्य जवाब देने लगा, उससे अब सहन नहीं हो रहा था। मसलन, उसने फ़ैसला कर लिया कि अब वो अपनी सांसों से नाता तोड़ देगी।
लेकिन अचानक उनकी जिंदगी में कुछ ऐसा हुआ, जिसने उनकी दशा और दिशा दोनों बदल दी। इसी पल चिंदी के मन में ये ख़्यास आया कि उसने बहुत कुछ सहा, उसके बावजूद वो अभी तक जीवित है। वो चाहे तो अपने जैसे बेसहारा लोगों को जीने की कला सिखा सकती है। यहीं से उन्हें बेसहारा बच्चों की सहायता करने की प्रेरणा मिली। उस दिन के बाद चिंदी सिंधुताई बन गयी।

इसके बाद शुरू हुआ एक अंतहीन सिलसिला, जो आज महाराष्ट्र की 6 बड़ी समाजसेवी संस्थाओं में तब्दील हो चुका है। अबतक सिंधुताई हर उस बच्चे की मां बन गयी, जो स्टेशन पर या आसपास कहीं बेसहारा पड़ा मिलता।
इन संस्थाओं में 1500 से ज्यादा बेसहारा बच्चे एक परिवार की तरह रहते हैं। सिंधुताई की संस्था में 'अनाथ' शब्द का इस्तेमाल वर्जित है। बच्चे उन्हें ताई (मां) कहकर बुलाते हैं। इन आश्रमों में विधवा महिलाओं को भी आसरा मिलता है। वे खाना बनाने से लेकर बच्चों की देखरेख का काम करती हैं।
मिले 700 से ज्यादा सम्मान!
बेघर बच्चों की देखरेख करने वाली सिंधुताई के लिए कहा जाता है कि इनके 1500 बच्चे, 150 से ज्यादा बहुएं और 300 से ज्यादा दामाद हैं। सिंधु ताई ने अपनी जिंदगी अनाथ बच्चों की सेवा में गुजारी दी, उनका पेट भरने के लिए कभी ट्रेनों में भीख तक मांगी।

पद्मश्री पुरस्कार मिलने पर सिंधुताई ने कहा कि यह पुरस्कार मेरे सहयोगियों और मेरे बच्चों का है। उन्होंने लोगों से अनाथ बच्चों को अपनाने की अपील की। अतीत को याद करते हुए सिंधुताई ने रोटी को भी धन्यवाद किया।
उन्होंने कहा, 'मेरी प्रेरणा, मेरी भूख और मेरी रोटी है। मैं इस रोटी का धन्यवाद करती हूं। यह पुरस्कार मेरे उन बच्चों के लिए हैं जिन्होंने मुझे जीने की ताकत दी। पद्मश्री से पहले सिंधुताई को अब तक 700 से अधिक सम्मान से नवाजा जा चुका है।