जानिए, कैसे एक सिक्का उछालकर भारत ने पाकिस्तान से जीती थी राष्ट्रपति की बग्घी!

1947 में आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच हर चीज का बंटवारा हो रहा था, इसमें से एक 'गवर्नर जनरल्स बॉडीगार्ड्स' रेजीमेंट भी थी। भारत का कहना था कि ये बग्घी हमें चाहिए और पाकिस्तान इस पर अपना दावा ठोक रहा था। आखिरकार इसका फैसला सिक्का उछालकर हुआ, जिसमे जीत भारत के हाँथ लगी और ये बग्घी आज भी हमारे राष्ट्रपति की शोभा बढ़ा रही है। क्या है इस ऐतिहासिक घटना की पूरी कहानी? चलिए हम आपको थोड़ा विस्तार से बताते है।
पाकिस्तान को हराकर मिली थी राष्ट्रपति की बग्घी!
बात 1947 की है। आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान में भूमि से लेकर कई चीजों का बंटवारा हुआ, लेकिन बात एक बग्घी पर अटक गई। सोने की परत चढ़ी, घोड़े से खींची जाने वाली ये छोटी गाड़ी यानी बग्घी मूल रूप से भारत में ब्रिटिश राज के दौरान वायसराय की थी। इसीलिए इस खास बग्घी को दोनों ही देश अपने पास रखना चाहते थे।

तत्कालीन 'गवर्नर जनरल्स बॉडीगार्ड्स' के कमांडेंट और उनके डिप्टी ने इस विवाद को सुलझाने के लिए एक सिक्के का सहारा लिया। आखिरकार इसका फैसला क्रिकेट खेल के टॉस की तरह हुआ। राष्ट्रपति के बॉडीगार्ड रेजिमेंट के पहले कमांडडेंट लेफ्टिनेंट कर्नल ठाकुर गोविंद सिंह और पाकिस्तानी सेना के साहबजादा याकूब खान के बीच बग्घी को लेकर टॉस हुआ।

गवर्नर जनरल्स बॉडीगार्ड्स ने दोनों पक्षों को आमने-सामने लाकर उनके बीच सिक्का उछाला, जिसमें भारत टॉस जीत गया। इसी के साथ आज राष्ट्रपति की शान माने जाने वाली बग्घी भारत की हो गई। जिसके बाद 1950 में देश के पहले गणतंत्र दिवस समारोह में देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने राजपथ पर हुई गणतंत्र दिवस परेड में इसी बग्घी में बैठकर हिस्सा लिया था।
प्रणब मुखर्जी ने बदली रीत!
शुरुआती सालों में भारत के राष्ट्रपति सभी सेरेमनी में इसी बग्घी से जाते थे और साथ ही 330 एकड़ में फैले राष्ट्रपति भवन के आसपास भी इसी से चलते थे। धीरे-धीरे सुरक्षा कारणों से इसका इस्तेमाल कम हो गया। इसके बाद से राष्ट्रपति बुलेट प्रूफ गाड़ी में आने लगे। लेकिन इस रीत को भी साल 2014 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बदल दिया।

करीब दो दशक बाद 2014 में प्रणब मुखर्जी ने बग्घी के इस्तेमाल की परंपरा फिर शुरू की और वह बीटिंग रिट्रीट कार्यक्रम में शामिल होने के लिए इसी बग्घी में पहुंचे थे। प्रणब से पहले 2002 से 2007 तक देश के 11वें राष्ट्रपति रहे डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम भी कभी-कभार राष्ट्रपति भवन में घूमने के लिए बग्घी का इस्तेमाल करते थे।
राष्ट्रपति के खास बॉडीगार्ड!
आज जिसे हम राष्ट्रपति के बॉडीगार्ड के नाम से जानते हैं, उनका इतिहास करीब 250 साल पुराना है। जिसका गठन 1773 में अंग्रेज गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने अपनी सुरक्षा के लिए उत्तर प्रदेश के शहर बनारस में किया था। और इस यूनिट के पहले कमांडर ईस्ट इंडिया कंपनी के कैप्टन स्वीनी टून थे।

आजादी के बाद, गवर्नर जनरल के बॉडीगार्ड- प्रेसिडेंट्स बॉडीगार्ड हिंदी में कहे तो राष्ट्रपति के अंगरक्षक कहलाये। यह भारतीय सेना की सबसे पुरानी और आज के समय की सबसे पावरफुल घुड़सवार यूनिट कहलाती है। जिसका जिम्मा सिर्फ भारत के राष्ट्रपति की सिक्योरिटी संभालना होता है।

आपको बता दे, राष्ट्रपति की सिक्योरिटी में शामिल सभी जवान बेहतरीन घुड़सवार, काबिल टैंक मैन और पैराट्रूपर्स होते हैं। घुड़सवारी के साथ-साथ ये किसी भी हमले के बक्त राष्ट्रपति को सुरक्षित रखने की कला भी जानते है।
अंगरक्षकों से जुड़े रोचक किस्से!
आजदी से पहले इस रेजिमेंट में सैनिकों की संख्या और इसका नाम साल दर साल बदलता रहा। देश की आजादी के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच इस यूनिट के जवानों का 2:1 के अनुपात में बंटवारा हुआ। मुसलमान यूनिट को पाकिस्तान को दे दिया गया, जबकि सिख और जाट यूनिट भारत को मिली।

अब इस यूनिट में जाटों, सिखों और राजपूतों का बोलबाला है। इसमें भर्ती होने वाले अधिकतर जवान पंजाब, हरियाणा और राजस्थान से आते हैं। आजादी के पहले प्रेसिडेंट्स बॉडीगार्ड के जवानों के लिए बेसिक हाईट कम से कम 6.3 फीट होना जरूरी थी, जो अब 6 फीट है।
प्रेसिडेंट्स बॉडीगार्ड रेजिमेंट के पहले कमांडडेंट थे लेफ्टिनेंट कर्नल ठाकुर गोविंद सिंह। उनके डिप्टी थे साहबजादा याकूब खान, जो बाद में पाकिस्तानी आर्मी से जुड़ गए थे। इस रेजिमेंट जवानों की खासियत इनके मजबूत घोड़े होते हैं। ये घोड़े भारतीय और ऑस्ट्रेलियाई या जर्मन घोड़ों की मिक्स ब्रीड के होते हैं।

इस नस्ल के घोड़ों की ऊंचाई आम घोड़ों की तुलना में ज्यादा होती है, जिससे वे बग्घी के सामने बिल्कुल फिट बैठते हैं। ये घोड़े 50 किमी प्रति घंटे की स्पीड से दौड़ सकते हैं। भारतीय सेना में केवल इन्हीं घोड़ों के बाल लंबे रखे जा सकते हैं।