बचपन में हुए नेत्रहीन... लेकिन नहीं मानी हार, अब माइक्रोसॉफ्ट से मिला 51 लाख का पॅकेज!

दिव्यांगता, जिसे अक्सर हमारे समाज के लोगों के द्वारा अभिशाप माना जाता है. यही कारण है कि समाज में दिव्यांगों को लोग एक अलग भावना से देखते हैं। लेकिन जब दिल में जज्बा हो तो यह दिव्यांगता भी वरदान साबित हो सकती है। और इसी को सच साबित कर दिखाया झारखंड के नेत्रहीन युवक सौरभ ने।
जिन्होंने पिता की प्रेरणा और अपनी मेहनत से अपने आईआईटी दिल्ली तक का सफर तय किया। अब पढ़ाई के दौरान ही माइक्रोसॉफ्ट में 51 लाख रुपए के सालाना पैकेज पर नौकरी हासिल की है। जिसके बाद नेत्रहीन सौरभ की चर्चा सोशल मीडिया से लेकर तमाम मीडिया हाउस में होने लगी। तो आइये जानते है सौरभ के जीवन संघर्ष की कहानी।
11 साल की उम्र में चली गई आंखों की रेशनी!
सौरभ झारखंड के चतरा जिले के टंडवा प्रखंड क्षेत्र चट्टीगाड़ीलौंग गांव निवासी है। बचपन से ही सौरभ ग्लूकोमा नामक नेत्र रोग से ग्रसित थे। जिसके कारण महज 11 साल की उम्र में ही सौरभ के आंखों की रेशनी चली गई। जिससे सौरभ अब देख नहीं पाते। पिता महेश प्रसाद गुप्ता ने बताया है कि बचपन में ही सौरभ ने अपनी आंखों की रोशन गंवा दी थी, लेकिन वह बचपन से ही कुछ बनना चाहता था।
अगर इंसान के हौसले बुलंद हो और दिल में जज्बा हो कुछ कर गुजरने की तो नामुमकिन कुछ भी नहीं। झारखंड के चतरा के सौरभ की महज 11 साल की उम्र में आंखों की रेशनी चली गई थी। नेत्रहीन सौरभ को माइक्रोसॉफ्ट में मिला 51 लाख पैकेज की नौकरी। #Jharkhand #Chatra pic.twitter.com/Lx6SCmhLMe
— Sohan singh (@sohansingh05) August 22, 2022
क्लास तीन के बाद उनकी आंखों की रोशनी पूरी तरह खत्म हो गई थी। इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और अपनी पढ़ाई जारी रखी। उसने मन लगाकर पढ़ाई की और जेईई मेंस में अच्छी रैंक हासिल की। फिलहाल आईआईटी दिल्ली में तीसरे वर्ष का छात्र है।
माइक्रोसॉफ्ट से मिला 51 लाख का बड़ा ऑफर!

इसी का परिणाम है कि आज सौरभ ने माइक्रोसॉफ्ट जैसी नामी बड़ी साफ्टवेयर कंपनी में जॉब पाकर यह साबित कर दिया कि वे नेत्र से हीन तो जरूर हैं लेकिन हौसलों से नहीं। जिस दिव्यांगता और नेत्रहीनता के कारण जो बच्चे अथवा युवा ठीक से स्कूलिंग भी नहीं कर पाते उन बच्चों अथवा युवाओं के लिए अपने आत्मविश्वास और प्रतिभा से लबरेज सौरभ आज प्रेरणा के स्रोत बन गए हैं।
जीवन में पढ़ाई के लिए किया संघर्ष!
सौरभ के पिता बताते है कि क्लास तीन के बाद जब सौरभ को दिखाई देना बंद हो गया तो हम सब निरास हो गए लेकिन सौरभ ने हार नहीं मानी। सौरभ ने आगे पढ़ने की इच्छा जाहिर की तो उसका दाखिला संत मिखाइल स्कूल में करा दिया। जंहा नेत्रहीन बच्चो को ब्रेल लिपि में पढ़ाया जाता था। सौरभ ने इसी स्कूल से सातवीं तक पढ़ाई की। लेकिन इसके बाद सौरभ के आगे फिर मुश्किल खड़ी हो गई, क्यूंकि आठवीं से 10वीं की किताबें ब्रेल लिपी में नहीं छपी थीं। तब सौरभ को लगा की उनकी सारी मेहनत बेकार हो गई।

सौरभ के पिता बताते है कि 1 से लेकर सातवीं तक सौरभ ने जिस तरह पढ़ाई को महत्व दिया उसे देखकर हम सौरभ को रोकना नहीं चाहते थे, इसीलिए उसकी आगे की पढ़ाई जारी रहे तो सरकार के पास फ़रियाद लगा दी। उन्होंने बताया कि बहुत आग्रह करने पर सरकार के द्वारा सौरभ के लिए आठवीं से दसवीं तक की किताबें छपाई गईं। जिसके बाद सौरव का नामांकन इन आईबीएस देहरादून स्कूल में करवाया गया।
मैट्रिक में सौरभ ने किया था टॉप!
कहते है ना कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते है, ऐसे ही कुछ कर दिखाया सौरभ ने। देहरादून से पढ़ाई के दौरान सौरभ ने मैट्रिक में टॉप किया था। 2017 में सौरभ ने 9.8 सीजीपीए हासिल किया था। इतना ही नहीं 93 प्रतिशत रिकार्ड अंकों के साथ 12वीं भी पास की। जिसके बाद आईआईटी दिल्ली में सौरभ का सीएसई में नामांकन करवाया गया। जहां वर्तमान में सौरभ सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग के तीसरे वर्ष की पढ़ाई कर रहे हैं।

सौरभ के पिता बताते हैं कि सौरभ की आंखों की रौशनी जाना, एक पल के लिए हमारे हौसलों को भी तोड़ दिया था। लेकिन बेटे के हौसले के आगे मैंने भी हिम्मत नहीं हारी और उसके हर कदम पर साथ चला। इसी का परिणाम है कि आज सौरभ ने माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनी में जॉब पाकर घर परिवार के साथ पूरे प्रखंड व जिले का नाम रौशन किया है।

बहरहाल सौरभ उन युवाओं और माता-पिता के लिए प्रेरणा स्रोत है जो अपनी दिव्यांगता को अभिशाप मानकर अस्थिर पड़ जाते हैं। सौरभ की इस सफलता से उन्हें सीख लेनी चाहिए कि अगर हौसले बुलंद हो तो दिव्यांगता और नेत्रहीनता आपके सफलता के रास्ते का रोड़ा कभी नहीं बन सकती।