वो खिलाड़ी जिसने देश के लिया जीता गोल्ड, मगर जिंदगी गुजारने के लिए चलानी पड़ी टैक्सी!

कहाबत है कि मेहनत से दूर भागने वालों को कभी सफलता नहीं मिलती लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता है जब मेहनत करने के बावजूद कुछ लोग वो हासिल नहीं कर पाते, जिसकी उन्हें उम्मीद होती है। ऐसा ही कुछ हुआ एशियन गेम्स के गोल्ड मेडलिस्ट सरवन सिंह के साथ। जिन्हें दो वक़्त की रोटी के लिए 20 सालों तक टैक्सी चला कर गुज़ारा करना पड़ा। जी हां, सरवन सिंह का ने 1954 के एशियाई खेलों में 110 मीटर बाधा दौड़ में स्वर्ण पदक जीता था, तो सबको ऐसा लगा कि उनकी किस्मत में महानतम एथलीट बनना लिखा है लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। तो क्या हुआ सरवन सिंह की लाइफ में? आइये हम आपको बताते है।
अर्श से फर्श तक का सफर!
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, सरवन सिंह ने 1954 के एशियाई खेलों के दौरान 110 मीटर बाधा दौड़ में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। आपको बता दे, यह उनका पहला अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम था और उन्होंने इसमें धमाकेदार एंट्री की थी। तब ऐसा लग रहा था कि वह अपने शानदार करियर की ओर बढ़ रहे हैं लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। कि देश के लिए स्वर्णपदक जीतने बाला खिलाड़ी अर्श से फर्श पर आ गिरा।
#ForgottenHeroes | The year was 1954. The setting, the Asian Games. 14.7 seconds is what it took Sarwan Singh to complete his 110 m hurdle race. He had won a gold for the country.
— Suresh Parmar® (@iamSureshParmar) September 25, 2021
16 years later, after retiring from the Army, Sarwan was forced to drive a taxi in Ambala. 😢 1/2 pic.twitter.com/RszMW31OaY
वे 1970 में बंगाल इंजीनियरिंग ग्रुप से सेवानिवृत्त हुए और इसी के बाद उनका बुरा समय शुरू हो गया। वह 20 साल तक अंबाला में टैक्सी चला कर अपना गुजारा करते रहे। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक एथलीट जिसने देश के लिए गोल्ड जीता हो, उसके लिए दो वक़्त की रोटी कमाना भी मुश्किल हो जाएगा। सरवन सिंह के के साथ रिटायरमेंट के बाद ऐसा ही हुआ।
20 साल टैक्सी चलाकर गुज़ारी ज़िंदगी!
1970 के आस-पास जब वो सेना से रिटायर हुए तो उन्हें सरकार से मिलने वाली पेंशन का ही सहारा था, लेकिन उन्हें वो भी नहीं मिली। ग़रीबी से जूझने की स्थिति में वो अपने परिवार से दूर रहकर क़रीब 20 साल तक अंबाला में टैक्सी चलाते रहे। लगभग छह साल पहले सरवन सिंह ने इंडिया टुडे को दिए इंटरव्यू में अपनी स्थिति के बारे में बताते हुए कहा था कि गोल्ड मेडल जीतने के बावजूद उन पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। एक गोल्ड मेडलिस्ट होकर उन्हें भीख मांगने से बेहतर टैक्सी चलाना लगा।
#ForgottenHeroes | At the 1954 Asian Games, Sarwan Singh took 14.7 seconds to complete his 110m hurdle race and win a gold for India.
— The Bridge (@the_bridge_in) September 19, 2021
16 years later, after retiring from the Army, Sarwan was forced to drive a taxi in Ambala. Eventually, he had to sell his medal to earn money. pic.twitter.com/wa3EYcsGPE
सरवन सिंह ने ये भी बताया कि जब वह 70 साल के हुए तो उनसे टैक्सी चलाने का काम भी छिन गया। ऐसी स्थिति में उन्हें खेतों में काम करने भी जाना पड़ा। फ़िल्म पान सिंह तोमर अंत में दिखाया गया था कि सरवन ने ख़राब आर्थिक स्थिति के कारण अपने मेडल बेच दिए थे, लेकिन एक इंटरव्यू में सरवन सिंह ने इस बात को बिल्कुल झूठ बताया और कहा कि उनके मेडल अभी भी उनके पास हैं।
देश को दिया पान सिंह तोमर जैसा हीरा!
पान सिंह तोमर यह नाम आपने कभी ना कभी सुना ही होगा, और इस सख्सियत को खोज निकालने का श्रेय भी सरवन सिंह को जाता है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, सरवन सिंह बंगाल इंजीनियरिंग ग्रुप में नौकरी करते थे। यहीं पर उनकी मुलाक़ात पान सिंह तोमर से हुई। साल था 1950 और पान सिंह एक नए रंगरूट के तौर पर भर्ती हुए थे। सरवन सिंह ही उनके इंस्ट्रक्टर थे।

सरवन ने पान को दौड़ते हुए देखा और उनकी प्रतिभा पहचानते हुए उन्हें कोच से मिलवाया। सरवन और कोच नरंजन सिंह की कोचिंग से पान ने बाधा दौड़ में इतिहास रचा। लेकिन देश के लिए स्वर्ण पदक जीतने वाले और देश को अपने जैसा एक धावक देने वाले सरवन को वो सब नहीं मिला जिसके वे हकदार थे।